White इस सफर ए दहर को भी अब ख़त्म ही समझो
मेरी दौड़ शहर शहर को भी अब ख़त्म ही समझो
है खत्म लहू जिस्म में अब ए ख्वाब-ओ-ख्यालो
इस बख्त जिगर को भी अब ख़त्म ही समझो
होने लगे हैं मुझसे भी अब शिकश्त जदा शेर
मेरे सुखन के हुनर को भी अब ख़त्म ही समझो
के इस मुल्क में सोच की बस हद है जात,धर्म,तो
यहां इंकलाब ओ गदर को भी अब ख़त्म ही समझो
जिस दर पे जियारत का हक हो जब हस्ब ए हैसियत
उस दर के करम ओ असर को भी अब खत्म ही समझो
जिस घर में बुजुर्ग एहसान जताते हैं जब अपने फर्ज का
टूटेगा जल्द घर, घर वो भी अब ख़त्म ही समझो
दहर-दुनिया
बख्त-फौलाद
सुखन-शायरी
जियारत- दर्शन,पूजा
हसब-हिसाब
©triwal
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