White ।।सरहद के पार।।
रातभर टपकती रही, हर दिशाओं में बहकती रही,
न मिला ठिकाना,श्याम के जलधर में गरजती रही।
सांस लेने की फुर्सत नही उसे,प्रवात चुप है कोने में,
बहती गंगा स्वं वेग से,नदीओं में तेज उफनती रही।
सरहदें लांघने लगी है वृष्टि, अब पुष्पदों की बारी है,
विंहगम है मज्जन जहां का,सौंदर्य से गमकती रही।
धरती से चलकर आशमान से मोतियां बरसने लगी है,
बनाकर ठिकाना दविज, दिवाकर में चहँकती रही।
प्यासी धरती सींच रही उदक को अपनी अधरों से,
फूलों की बगीयां से धरा के आंगन में महकती रही।
मौलिक रचना
।। संतोष शर्मा।।
कुशीनगर (उत्तर प्रदेश)
दिनांक-06/07/2024
©santosh sharma
Continue with Social Accounts
Facebook Googleor already have account Login Here