White जिंदगी के सफर में भला आदमी, दोष का बोझ सर पे | हिंदी कविता

"White जिंदगी के सफर में भला आदमी, दोष का बोझ सर पे उठाता रहा। मसखरी हो गई दर्द का फलसफा, उमर भर वो सदा मुस्कुराता रहा।। उसने साथी चुने रूठने वाले सब उसने तारे चुने टूटने वाले सब। उसने चाहा जो कम है वो ज्यादा बने। राजा रानी बने न कि प्यादा बने। बस यही सोच कर आगे बढ़ता रहा, बस यही सोच खुद को घटाता रहा। जिंदगी के सफर में भला आदमी, दोष का बोझ सर पे उठाता रहा। मसखरी हो गई दर्द का फलसफा, उमर भर वो सदा मुस्कुराता रहा।। एक जमाना लगा भूलने में उसे, याद जिसको जमाने से छुप के किया। आज नाकारा नामर्द सुनना पड़ा, रात दिन जो बुलाती थी मेरे पिया। दौलतों के अंधेरे ये घर खा गए, देहरी पे दिया वो जलाता रहा। जिंदगी के सफर में भला आदमी, दोष का बोझ सर पे उठाता रहा। मसखरी हो गई दर्द का फलसफा, उमर भर वो सदा मुस्कुराता रहा।। एक माली के आंगन के दो फूल थे, फूल दोनों बहुत उसको मकबूल थे। एक कांटा भी उस बाग में था पला। फूल का चाहता रात दिन था भला।। चार कांधों का था बोझ पर बाबला, खुद को तन्हा ही कांधा लगाता रहा। जिंदगी के सफर में भला आदमी, दोष का बोझ सर पे उठाता रहा। मसखरी हो गई दर्द का फलसफा, उमर भर वो सदा मुस्कुराता रहा।। निर्भय चौहान(निरपुरिया) ©निर्भय चौहान"

 White जिंदगी के सफर में भला आदमी,
दोष का बोझ सर पे उठाता रहा।
मसखरी हो गई दर्द का फलसफा,
उमर भर वो सदा मुस्कुराता रहा।।

उसने साथी चुने रूठने वाले सब
उसने तारे चुने टूटने वाले सब।
उसने चाहा जो कम है वो ज्यादा बने।
राजा रानी बने न कि प्यादा बने।
बस यही सोच कर आगे बढ़ता रहा,
बस यही सोच खुद को घटाता रहा।

जिंदगी के सफर में भला आदमी,
दोष का बोझ सर पे उठाता रहा।
मसखरी हो गई दर्द का फलसफा,
उमर भर वो सदा मुस्कुराता रहा।।

एक जमाना लगा भूलने में उसे,
याद जिसको जमाने से छुप के किया।
आज नाकारा नामर्द सुनना पड़ा,
रात दिन जो बुलाती थी मेरे पिया।
दौलतों के अंधेरे ये घर खा गए,
देहरी पे दिया वो जलाता रहा।

जिंदगी के सफर में भला आदमी,
दोष का बोझ सर पे उठाता रहा।
मसखरी हो गई दर्द का फलसफा,
उमर भर वो सदा मुस्कुराता रहा।।

एक माली के आंगन के दो फूल थे,
फूल दोनों बहुत उसको मकबूल थे।
एक कांटा भी उस बाग में था पला।
फूल का चाहता रात दिन था भला।।

चार कांधों का था बोझ पर बाबला,
खुद को तन्हा ही कांधा लगाता रहा।

जिंदगी के सफर में भला आदमी,
दोष का बोझ सर पे उठाता रहा।
मसखरी हो गई दर्द का फलसफा,
उमर भर वो सदा मुस्कुराता रहा।।

निर्भय चौहान(निरपुरिया)

©निर्भय चौहान

White जिंदगी के सफर में भला आदमी, दोष का बोझ सर पे उठाता रहा। मसखरी हो गई दर्द का फलसफा, उमर भर वो सदा मुस्कुराता रहा।। उसने साथी चुने रूठने वाले सब उसने तारे चुने टूटने वाले सब। उसने चाहा जो कम है वो ज्यादा बने। राजा रानी बने न कि प्यादा बने। बस यही सोच कर आगे बढ़ता रहा, बस यही सोच खुद को घटाता रहा। जिंदगी के सफर में भला आदमी, दोष का बोझ सर पे उठाता रहा। मसखरी हो गई दर्द का फलसफा, उमर भर वो सदा मुस्कुराता रहा।। एक जमाना लगा भूलने में उसे, याद जिसको जमाने से छुप के किया। आज नाकारा नामर्द सुनना पड़ा, रात दिन जो बुलाती थी मेरे पिया। दौलतों के अंधेरे ये घर खा गए, देहरी पे दिया वो जलाता रहा। जिंदगी के सफर में भला आदमी, दोष का बोझ सर पे उठाता रहा। मसखरी हो गई दर्द का फलसफा, उमर भर वो सदा मुस्कुराता रहा।। एक माली के आंगन के दो फूल थे, फूल दोनों बहुत उसको मकबूल थे। एक कांटा भी उस बाग में था पला। फूल का चाहता रात दिन था भला।। चार कांधों का था बोझ पर बाबला, खुद को तन्हा ही कांधा लगाता रहा। जिंदगी के सफर में भला आदमी, दोष का बोझ सर पे उठाता रहा। मसखरी हो गई दर्द का फलसफा, उमर भर वो सदा मुस्कुराता रहा।। निर्भय चौहान(निरपुरिया) ©निर्भय चौहान

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