साँझ इकठ्ठे हो जाते हैं कुछ परिंदे मुंडेरों पर ...
कुछ छज्जों की छांव में आ रुकते हैं ...
आती जाती हवाएं ठहर जाती हैं ...
वहीं बाग में कुछ देर बहने के लिए ...
तितलियां करने लगती हैं बातें फूलों से . ..
बतियाते हैं दरख़्त भी हाल इक दूजे से
कुदरत के रंगों की यूँ बौछारें आती हैं ...
तुम जब शाम ढले खिड़की पर आती हो ...
तब कुछ इसी तरह से ...
बहारें आती हैं ...
-विक्रम
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©VIKRAM RAJAK
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