स्त्री अक्सर दो दुनिया में जीती है
इक दुनिया घर की दहलीज के भीतर,
समाज व परिवार के दायरों में
खुद को भूली सी, बाहर बिखरी सी
खुश दिखती है जैसे सारे जहां की
खुशियों उसके कदमों में पड़ी है
झुकी नजर, खामोश जुबान,
सब कुछ स्वीकारती सी मुस्कान
मगर एकांत में
वो इक अलग दुनिया में पहुंच जाती है
भीतर की दुनिया
खुद की गहराइयों में उतरती है
डूबती है, उबरती है,
बारिश की कुछ बूंदे चेहरे पर महसूस करती है
पहली बारिश और मिट्टी की खुशबू
में वो खो जाती है
कभी वो हवा के साथ उड़ती है
कभी नदी के साथ बहती है
कभी जब फूलों की खुशबू से महक जाती है
कभी अकेले चांद को देखती है
मगर ये सब तो बहाने है
भीतर की दुनिया में उतरने के
फिर लौट ही आना है उस दुनिया में
जहाँ खुश दिखती है वो
जैसे सारे जहां की
खुशियों उसके कदमों में पड़ी है ..सुमन शाह
©Suman Rakesh Shah
स्त्री और उसकी दुनिया
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