“करना आता नहीं”
करे ज़िद चाँद की वो, भूमि पर रहना आता नहीं,
जगत को वो कहे जाहिल, जिसे पढ़ना आता नहीं|
फिरे वो बाँटता, बस मुफ़्त का ही हरदम मशवरा,
करे बेकार, हर एक बात, कुछ करना आता नहीं|
भला सेना क्यों, अब बलि चढे, गैरों के वास्ते,
खुले इस आसमाँ मे, साँस जब भरना आता नहीं|
दिखा देगा भला कैसे, समुन्दर को वो आइना,
दिले नादान के अंदर जिसे खुद तकना आता नहीं|
सियासत खेल मजहब का, खिलाड़ी बेईमान है,
धरम की राह दिखलाते मगर चलना आता नहीं।
©Harish Singla
#Sunrise