जटा में गंगा, त्रिशूल की धार,
शिव हैं महादेव, जग के आधार।
भस्म से सजा तन, नीलकंठ का रूप,
माथे पर चांद, गले में सांप,
पहने बज की खाल, बैठे मृगछाल।
शिव की चुप्पी में ब्रह्मांड का शोर,
गले में विष, त्रिनेत्र की ज्वाला,
जो देखे उन्हें, वह पाता उजाला।
कैलाश पर उनका पावन बसेरा,
गण हैं समीप, भूत-प्रेत हैं साये,
हर युग में उनका न्याय जगाये।
ब्रह्मा-विष्णु भी झुकते उनके सामने,
काल भी रुके, जिनके चरणों के दामन।
भांग-धतूरा चढ़े उनके श्रृंगार में,
मृत्यु भी कांपे, उनके संहार में।
काल भी झुके, जिनके चरणों की धूप,
सृष्टि के कण-कण में जिनका स्वरूप।
©नवनीत ठाकुर
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