बैठूंगी शांत एकांत में......
जीवन की इस आपा धापी में, भूल सी गई हूँ अपने आप को
मेरी शख्सियत भी अब,अपना वजूद मांगती है मुझसे हर बात पे
क्या थी मैं,अब क्या हूँ मैं, ये सवाल करती है बात बात पे
एक समय अनंत गगन के उन्मुक्त पंक्षी सा किरदार था मेरा
जो अब वक़्त के पन्नों में,कहीं दबा सा प्रतीत होता है
कई दफ़ा सोचती हूँ,फिर से खोलू उन बंद पन्नों को
जिसने समेट रखा है, अपने आगोश में बीते ख़ास पलों को
धुंधली सी यादें बस साथ हैँ, बाकी तो अपने आप में ख़ास हैँ
कोहरे की धुंधलाहट चारों ओंर है, परत दर परत जो जम सा गया है
बेवक्त के शोर में, समय मुझसे दूर कहीं निकल रहा है
ना लौट आने वाले इस वक्त को, खींच कर साथ लाना है
रखना है इसे सहेज़ कर, क्यूंकि सहेज़ रखा है इसने मेरे बीते पलों को
अनमोल हैँ ये, और इससे कहीं अधिक अनमोल है मेरी शख्सियत
जिसे जिया था कभी मैंने, अपने आप में
उसे ही देख देख कर जीऊंगी अपने इस आज को
पर जीने से पहले हर बार, बैठूंगी कहीं शांत,एकांत में
शांत रहकर एकांत में, ब्राह्मण्ड की ऊर्जा को समेटूंगी अपने आप में
कुछ गुफ़्तगू होगी, कुछ नोक झोंक होंगी,दिल की दिमाग़ से
अंत में ,गहरी लम्बी सांस लेकर
चल पड़ूँगी एक नई ऊर्जा और आत्मविश्वास से
ख़ुद की बनाई नई दिशा की ओंर...
©Rina
#intezar