सांसों के डोरी के सहारे, सफर पर निकल रहा हूं। जब त | हिंदी कविता

"सांसों के डोरी के सहारे, सफर पर निकल रहा हूं। जब तक चल रहा है, तब तक चल रहा हूं। मुझे मालूम नहीं, मूल कहां हैं मेरा। मैं बंधा हूं संस्कारों में , भूल कहां है मेरा। जब तक देख न लूं , चैन है कहां। तब तक बेचैन ही हूं , बंद नैन है कहां। जड़ें कहां तक है , कहां है मुझे मालूम। जहां तक मन जा रहा है जा रहा हूं करने मालूम। थक हार कर बैठुंगा नही, नया थोड़े तालाश रहा हूं। नया हूं भी नहीं, अविनाशी का अंश हूं। विनाश होने का भय नही है, अमर अंश हूं। ©Narendra kumar"

 सांसों के डोरी के सहारे,
सफर पर निकल रहा हूं।
जब तक चल रहा है,
तब तक चल रहा हूं।
मुझे मालूम नहीं, 
मूल कहां हैं मेरा।
मैं बंधा हूं संस्कारों में ,
भूल कहां है मेरा।
जब तक देख न लूं ,
चैन है कहां।
तब तक बेचैन ही हूं ,
बंद नैन है कहां।
जड़ें कहां तक है ,
कहां है मुझे मालूम।
जहां तक मन जा रहा है 
जा रहा हूं करने मालूम।
थक हार कर बैठुंगा नही,
नया थोड़े तालाश रहा हूं।
नया हूं भी नहीं, 
अविनाशी का अंश हूं।
विनाश होने का भय नही है,
अमर अंश हूं।

©Narendra kumar

सांसों के डोरी के सहारे, सफर पर निकल रहा हूं। जब तक चल रहा है, तब तक चल रहा हूं। मुझे मालूम नहीं, मूल कहां हैं मेरा। मैं बंधा हूं संस्कारों में , भूल कहां है मेरा। जब तक देख न लूं , चैन है कहां। तब तक बेचैन ही हूं , बंद नैन है कहां। जड़ें कहां तक है , कहां है मुझे मालूम। जहां तक मन जा रहा है जा रहा हूं करने मालूम। थक हार कर बैठुंगा नही, नया थोड़े तालाश रहा हूं। नया हूं भी नहीं, अविनाशी का अंश हूं। विनाश होने का भय नही है, अमर अंश हूं। ©Narendra kumar

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