शीर्षक: ढलती उम्र और संतान
उन हथेलियों से उंगलियां
छूटना चाहती है पूरी ताकत लगाकर
जिन्हें थाम कर कभी
हुई थी गलियों से मुलाकात
जिनकी रीढ़ अब लगभग झुकी है
उम्र और दायित्व के वजन से
उन्हीं कंधों पर बचपन में
सवारी लगती चेतक सी
जरूरत भी पड़ी कभी ,सहारे की यदि उन्हें
स्वयं के लाल की परछाई,कदाचित ढूंढ न पाएं
प्रतिक्षा की उम्मीद में वक्त कुछ ही बचा है अब
मगर यह भी नहीं है तय
कि तुम मिल पाओगे या नहीं
हमेशा साफ चश्मे को
किया करता हूं मैं अक्सर
नजर कमजोर हैं मेरी
मन बहला लिया करता हूं कहकर कि कदाचित तुम
मुझे अब दिख नहीं पाते
अभी मैं भूल जाता हूं , जले चूल्हे को बंद करना
पता घर का नहीं केवल, खुले जिप को भी बंद करना
बटन वाली कमीज अब मैं ,पहन पता नहीं खुद से
मगर कुर्ते में अक्सर ही मुझे अब ठंड लगती है
शरीर अब शव बना जाता
मरघट सा लगे घर भी
सरसैया लगे बिस्तर
सुकूं मिलता न क्षण भर भी
बहुत तरसी मेरी अखियां,
तुम्हें फुर्सत मिली न पर
नहीं मैं याद आता क्या
सूना लगता है अब शहर
क्या वीडियो कॉल पर ही फिर से मिलने का इरादा है ?
या मैं समझूं मेरी चिन्ता,मेरे दुलार से तेरी तनख्वाह ज्यादा है
कभी उत्सव के न्योते पर नवादा ऑफलाइन आ जाना
पिता अनुरोध करता है, बनाना न कोई बहाना
खड़े पाया था साथ अपने ,कठिन हालात में जिनको
अकेला पा रहे वे खुद को ,जरूरत है उन्हें तेरी
तुम्हारी आश में उनको, जीते देख पाया हूं
सहारे के नहीं मोहताज, तुम्हीं उनकी हो कमजोरी
स्वरचित कविता
–प्रिया कुमारी
©Priya Kumari Niharika
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