नसीम ए सुब्ह थी औऱ दीदार ए यार होना था
लगता था जैसे ज़ीस्त से फिर प्यार होना था।
वो आए बज़्म में और रुख से पर्दा हटाया था ,
हमे तो यार अब इश्क़ में बीमार होना था।
सुब्ह थी और आफताब भी निकल आया था,
मगर मुझे तो अब दीदार ए महताब होना था।
आज ही तो माँगी थी इश्क़ से सलामती की दुआ ,
आज ही शायद उन्हें मेरे साथ होना था।
बड़े अदब से नज़र झुकाए वो पास बैठे थे,
हमें भी रस्मन उन्हें अब आदाब कहना था।
वो पलटे , मुस्कुराये और धीरे से ये बोले,
जनाब अब तक तो इश्क़ का इज़हार होना था।।
: shabayman
ज़ीस्त : ज़िन्दगी
नसीम ए सुब्ह: सुबह की हवा
आफ़ताब : सूरज
महताब : चाँद
बज़्म : महफ़िल
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