गुनाह गुनाहों का शिलशिला यूँ ही जिंदगी में चलता रहा,
मैं गुनाहों पर गुनाह यूँ ही करता रहा,
एक जो गुनाह किया कभी मैंने,
फिर ना जाने क्यूँ उसी राह चलता रहा,
सोच बैठा था , बहुत मासूम इस जहाँ को,
पर हर बार खंजर के वार सहता रहा,
अक्सर गले लगाना चाहा था जिन को प्यार से,
उन्होनें ही दिल को तारतार किया,
सब को नेक समझने का गुनाह जो मैने किया,
जिंदगी भर उसी राह पर चलता रहा,
समझता था हर दिल में बसा है अपनत्व,
हर बार सोचना ये निराधार हुआ ,
गुनाहों पे गुनाह हर बार मैं करता रहा,
गैरों को भी अपना मैं समझता रहा,।
"दीप"
#गुनाह