आकर रुक गया मैं एक किनारे पर चलते हुए जहां तक नजर | हिंदी विचार

"आकर रुक गया मैं एक किनारे पर चलते हुए जहां तक नजर जा सकती थी देखता गया भीड़ भरे इस जहां में कितना तन्हा पाया खुद को आंखें बंद करके सुनता रहा सन्नाटे का शोर मन के भीतर जो उत्पात मचा रखा था एहसासों ने कि तू सबके लिए खड़ा था पर ,तेरे कोई साथ न आया आंख खोली तो सच से सामना हुआ खुद को झूठी तसल्ली देने की आदत वहीं छोड़ आया वो बैचेनी जो होती थी खामखा वो बेफिजूल से अरमान दिल के सब दिल से निकाल कर फेंक आया खुद से ही जंग लड़ रहा हूं हर रोज अनजान था जिंदगी के मायने समझने से जब खुद को जाना तो सब समझ आया भीड़ भरे इस जहां में मैंने खुद को कितना तन्हा पाया ©Jitender Sharma"

 आकर रुक गया मैं एक किनारे पर  चलते हुए
जहां तक नजर जा सकती थी देखता गया 
भीड़ भरे इस जहां में कितना तन्हा पाया खुद को
आंखें बंद करके सुनता रहा सन्नाटे का शोर
 मन के भीतर जो उत्पात मचा रखा था एहसासों ने कि तू सबके लिए खड़ा था पर ,तेरे कोई साथ न आया
आंख खोली तो सच से सामना हुआ 
खुद को झूठी तसल्ली देने की आदत वहीं छोड़ आया

वो बैचेनी जो होती थी खामखा 
वो बेफिजूल से अरमान दिल के
सब दिल से निकाल कर फेंक आया 
खुद से ही जंग लड़ रहा हूं हर रोज
अनजान था जिंदगी के मायने समझने से
जब खुद को जाना तो सब समझ आया
भीड़ भरे इस जहां में मैंने खुद को कितना तन्हा पाया

©Jitender Sharma

आकर रुक गया मैं एक किनारे पर चलते हुए जहां तक नजर जा सकती थी देखता गया भीड़ भरे इस जहां में कितना तन्हा पाया खुद को आंखें बंद करके सुनता रहा सन्नाटे का शोर मन के भीतर जो उत्पात मचा रखा था एहसासों ने कि तू सबके लिए खड़ा था पर ,तेरे कोई साथ न आया आंख खोली तो सच से सामना हुआ खुद को झूठी तसल्ली देने की आदत वहीं छोड़ आया वो बैचेनी जो होती थी खामखा वो बेफिजूल से अरमान दिल के सब दिल से निकाल कर फेंक आया खुद से ही जंग लड़ रहा हूं हर रोज अनजान था जिंदगी के मायने समझने से जब खुद को जाना तो सब समझ आया भीड़ भरे इस जहां में मैंने खुद को कितना तन्हा पाया ©Jitender Sharma

#GoldenHour सच से सामना

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