सुब्हो शब ख़ामोश जैसे हाय महशर की तरह ख़म ज़द

"सुब्हो शब ख़ामोश जैसे हाय महशर की तरह ख़म ज़दा आवाज़ भी है जुल्फ़ ए सर की तरह हादिसा ना ज़लज़ले की शक्ल गुज़रे इसलिए एहतियातन दिल से निकले लोग भी डर की तरह था सराब ओ सहरा का मंज़र बहुत देखा हुआ ख़ाक ए ग़म के साथ उस के दीद ऐ तर की तरह इक गरज़ है सिर्फ सज़दे में अकीदत के सिवा पूजता है बुत को इंसा ख़ुद भी पत्थर की तरह फिर नई ताबीर को कुर्बान पिछले ख़्वाब से..... हम शहर की जुस्तजू में गांव के घर की तरह विपिन चौहान मन"

 सुब्हो  शब  ख़ामोश  जैसे  हाय  महशर की तरह
ख़म ज़दा  आवाज़ भी है  जुल्फ़ ए सर  की तरह

हादिसा  ना  ज़लज़ले  की  शक्ल  गुज़रे इसलिए
एहतियातन दिल से निकले लोग भी डर की तरह

था  सराब  ओ  सहरा का  मंज़र बहुत  देखा हुआ
ख़ाक  ए ग़म के साथ उस के  दीद ऐ तर की तरह

इक  गरज़  है  सिर्फ  सज़दे  में अकीदत  के  सिवा
पूजता  है  बुत  को  इंसा  ख़ुद भी पत्थर  की तरह

फिर  नई  ताबीर  को  कुर्बान  पिछले  ख़्वाब  से.....
हम  शहर  की  जुस्तजू  में  गांव  के  घर  की  तरह

विपिन चौहान मन

सुब्हो शब ख़ामोश जैसे हाय महशर की तरह ख़म ज़दा आवाज़ भी है जुल्फ़ ए सर की तरह हादिसा ना ज़लज़ले की शक्ल गुज़रे इसलिए एहतियातन दिल से निकले लोग भी डर की तरह था सराब ओ सहरा का मंज़र बहुत देखा हुआ ख़ाक ए ग़म के साथ उस के दीद ऐ तर की तरह इक गरज़ है सिर्फ सज़दे में अकीदत के सिवा पूजता है बुत को इंसा ख़ुद भी पत्थर की तरह फिर नई ताबीर को कुर्बान पिछले ख़्वाब से..... हम शहर की जुस्तजू में गांव के घर की तरह विपिन चौहान मन

#मन

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