नहीं मैं नहीं मानती,
नहीं मानती इस कथनी को ,
जिसे बचपन से सुनती आयी हूँ,
क्यों बताया गया हमें ,
की ऊपरवाले के बच्चे हैं हम,
अगर बच्चे हैं उसके ,
तो क्यों नहीं तोला हमें एक तराज़ू में,
क्यों किसी की किस्मत सोने की कलम से रची?
तो क्यों किसी के लिए दो वक्त की रोटी भी न बची ?
क्यों किसी की झोली खुशियों से भर दी ,
तो छोड़ दिया किसी को ,
दुनिया की सारी मुश्किलों से लड़ने के लिए,
दुनिया में उसने दो पौधें लगाए,
उसमें भी अंतर कर,
कुछ को बना दिया फलदार पौधों का मालिक,
तो क्यों किसी का बचपन छोड़ दिया काँटो से खेलने के लिए?
सवाल करूँगी,
याद रखूँगी, कभी मुलाकात हुई तो ,
सामना करना पड़ेगा उसे मेरे सवालों का,
देना पड़ेगा जवाब इस भेदभाव का।
✍️दिव्या
#river