अल्फाज़ों मे भी *न बयाँ हो वो आबंध* हो तुम,
जो सुनाता हूँ सबको, कोई *मधुर संगीत* हो तुम।
*उस राधा सा ठहराव तुम* में,
व्याकुल सा मन हूँ मैं...
सुनो इस *'सोनू' को निहारत रहने का दास* बना लो तुम।
एक *अजीब सा कौतुहल* है मन का,
कभी *सुनाऊँगा*
जब समक्ष होगे मेरे, आँचल से इक पल की छाँव कर ही देना तुम।
उस *राग की परिभाषा* भी अजीब होगी 'अनु'
बस *परिभाषित भी कर देना तुम*।
©अभिषेक मिश्रा "अभि"
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