स्मृतियाँ सहजता से लक्ष्य की ओर लेकर जाती हैं।जिसमें प्रेम है ! समर्पण है ! मनुष्यता से युक्त भाव है ! ज्ञान की पराकाष्ठा है ! विरह-वेदना का प्रवाह है ! हर क्षण एक उत्कंठा है ! हृदय में प्रवाहित ये अवस्था पथिक की श्रेष्ठ स्थिति है । प्रेम आध्यात्मिक ही होता है। जो व्यावसायिक है वो प्रेम नहीं है। हमारे अनेक सांस्कृतिक ग्रन्थों में प्रेम के अनेक उदाहरण मिलते हैं। क्या जब ईश्वर और महापुरुषों को प्रेम हो सकता है । तो साधारण मनुष्य को प्रेम क्यों नहीं हो सकता। प्रेम से डरना कैसा हमेशा प्रेम स्वच्छंद और निःस्वार्थ एवं आध्यात्मिक होता है। प्रेम चाहे शिव-पार्वती जी का हो या राधा-कृष्ण जी का हो राम सीता जी का हो या किसी पुरुष इस्त्री का इसी लिए जब ऊपर दरसाए गए महापुरुष जिन्हे ईश्वर कहा जाता है तो इनके मंचन पर प्रेम लीला के बाद ही विवाह दिखाया जाता है । इतनी बात हमारे समाजों को समझ में नहीं आई। न ही हमारे कथा वाचकों को जिन्होंने प्रेम को ही गलत कह दिया । जब की ज्ञानियों को समाजों में प्रेम विवाह को ही श्रेष्ठ और उत्तम कहना चाहिए ।
©sanjay Kumar Mishra
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