मन की विह्वलता को, कैसे समझाऊं डूबते-उतराते भाव म | हिंदी कविता Video

"मन की विह्वलता को, कैसे समझाऊं डूबते-उतराते भाव मन के,कैसे समझाऊं व्यथा में व्यथित मन, छ्लनी सा हो रहा सागर सम कोलाहल को, कैसे समझाऊं। निरवता ब्याप्त रही, मन के आंगन में घोर तिमिर अंधकार, छा रहा जीवन में प्रेम की ज्वाला में,धधक रहा पोर पोर तिल तिल मैं मर रही,जीवन की चाह में। छिन रही है जिंदगी,प्यार की अतिरेक में पिघल रही चांदनी,चांद की अवहेलना में धीरे-धीरे चांदनी भी, कुम्हला रही है बेवफा चांद भाग रहा,बादलों की ओट में। स्वरचित ✍️ नरेशचन्द्र"लक्ष्मी" फरीदाबाद हरियाणा ©Naresh Chandra "

मन की विह्वलता को, कैसे समझाऊं डूबते-उतराते भाव मन के,कैसे समझाऊं व्यथा में व्यथित मन, छ्लनी सा हो रहा सागर सम कोलाहल को, कैसे समझाऊं। निरवता ब्याप्त रही, मन के आंगन में घोर तिमिर अंधकार, छा रहा जीवन में प्रेम की ज्वाला में,धधक रहा पोर पोर तिल तिल मैं मर रही,जीवन की चाह में। छिन रही है जिंदगी,प्यार की अतिरेक में पिघल रही चांदनी,चांद की अवहेलना में धीरे-धीरे चांदनी भी, कुम्हला रही है बेवफा चांद भाग रहा,बादलों की ओट में। स्वरचित ✍️ नरेशचन्द्र"लक्ष्मी" फरीदाबाद हरियाणा ©Naresh Chandra

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