कहना चाहता था बहुत कुछ
पर कुछ कहा ही नहीं
रोया इतना अश्क सुख चुके हैं
एक बूंद भी बहा ही नहीं
बेबाक, बिफकरा, मस्तमौला
जो शख्श था मैं कभी
अब देखता हूं जब आईने में
वो रहा ही नहीं
गुम सा गया है कहीं
कुछ पता नहीं चलता
तलाशता रहता हूं खुद भी
जो शख्स मैं कल था
ये चालाकियों का दौर है
रिश्ते दिल से निभाता था
मगर इस बेरहम जमाने में
क्या काम है दिल है
अजनबी शहर से बेहतर है
हमें गांव में सुकून था
वो सरदी में अमरूद के मजे
आम का समय जून था
इस शहर ने हमे आज इतना है
खामोश कर दिया है
वरना मैं भी था कभी अपनी
मैइया का लल्ला मासूम सा
यहां भरी सा रहता है मन
जैसे सब कुछ हूं मैं हार चुका
धीरे धीरे धीरे धीरे
हूं खुद को भी मैं मार चुका
हैं चेहरे यहां पर कई और
हर चेहरे के दो चेहरे हैं
जो समझे हालत मेरी
नही ऐसा कोई यार मिला
-Deva
©Devendra Pratap Singh
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