तू अपने हुस्न पे यूँ न इतराया कर, बारिशों में कभी तो भीग जाया कर, मुझे फर्क नहीं पड़ता अब रक़ीब से, कभी हिज्र की रात उसे भी दिखाया कर, ग़म-ए-दहर का वस्ल जारी ह.
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