तुम यदि भावों को मेरे
थोड़ा भी समझ पाती
फ़िर न मुझको तुम
अकेले छोड़ के जाती
कितनी यादें हैं जो दिल में अब तक भूल न पाया
कभी-कभी सोचता हूँ तुमने साथ क्यों न निभाया
कॉलेज वाले वो दिन भी
कितने अच्छे लगते थे
रात-रात भर पढ़ने के
बहाने बातें करते रहते थे
प्यार में रहता था अव्वल,पर पढ़ाई में जीरो आया
कभी-कभी सोचता हूँ तुमने साथ क्यों न निभाया
घर मे झूठ बोलकर मैं
तुमसे मिलने जाता था
बाइक में तुमको बिठाकर
बहुत सुकून तो पाता था
लौंग ड्राइव पर अकसर मैंने दिल की बात सुनाया
कभी-कभी सोचता हूँ तुमने साथ क्यों न निभाया
मेरी दी हुई अंगूठी क्या
अब भी तुम पहनती हो
या अब जो मिल गया है
सिर्फ उसी पर मरती हो
यादें जिंदा रहे,इसलिए एक और अंगूठी मंगवाया
कभी कभी सोचता हूँ तुमने साथ क्यों न निभाया
~किशोर मनी
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