White काल का इक चक्र चला और जीवन बदला
मैं निकल पड़ी.. कर्म पथ पर
आंसू के अस्त्र नही लेकर..मन में साहस तलवार लिए
दहलीज़ लांघकर चल दी मैं, कांटों को दर किनार किए
और मैं निकल पड़ी.. कर्म पथ पर
आंधी आयी, तुफ़ां आये.. मझधार खड़ी पर रुकी नहीं
धूप में तन काला किया, पर माथे पर कोई शिकन नहीं
और मैं निकल पड़ी.. कर्म पथ पर
ख़ुद में मनु को देखूं मैं, मन को बंधन मुक्त किया
निडर अकेली डंटी रही, और आंसू धोकर पी गयी
और मैं निकल पड़ी.. कर्म पथ पर
ना साथी, ना संगी कोई.. खुद को ही सखी बना लिया
कलम का हाथ पकड़कर मैंने.. दुख के बोझ को पार किया
और मैं निकल पड़ी.. कर्म पथ पर
ये साहस कहां से ढूंढ़ लाई.. इसकी आज भी ख़बर नहीं
छिपी बैठी थी घर में कहीं.. वो हिम्मत कहां से ले आयी
और मैं निकल पड़ी.. कर्म पथ पर ..
©Swati kashyap
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