White Good morning से आती सुबह और Good evening से जाती शाम,
धीरे-2 हो रहा हूँ फिर से अंग्रेजियत का गुलाम।
अपनी परम्पराओं पर शर्मिंदगी जताई जा रही,
ये अनपढ़ों की भाषा है, हिन्दी बताई जा रही।
उसी का दर्द उसकी निराशा खोलना चाहता हूँ,
सुुनो,मैं अपने गांव की भाषा बोलना चाहता हूँ।।
ये पश्चिम तेरी हर चालाकी मैं पहचान जाता हूँ,
क्या,क्यूं और कब कर रहे, सब जान जाता हूँ।
अफसोस! सब जानकर भी सच्चाई से कोसों दूर हूँ,
मैं भी नौकर बनने, नौकरी करने पर मजबूर हूँ।
शक्कर नहीं है शरबत मे बताशा घोलना चाहता हूँ,
सुुनो,मैं अपने गांव की भाषा बोलना चाहता हूं।।
प्रेम की गहराई को बस काम बनाना सिखाया,
सुन्दरता के नाम पर अश्लीलता नग्नता दिखाया।
हां! तुम जो जो चाहते थे वो सब खाने लगे हैं,
आधुनिकता की आग में खुद को जलाने लगे हैं।
तुम्हारी जीत अपनी हताशा तौलना चाहता हूँ,
सुुनो,मैं अपने गांव की भाषा बोलना चाहता हूं।।
©शुभम मिश्र बेलौरा
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