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हम दूसरों से सीख कर.. खुद में ढाल लेते हैं... कभी पूछा है खुद से... की खुद से खुद को कितना जान लेते हैं... जिंदगी मिलती सबको एक है... उसमें भी दूसरो को तराश लेते हैं... जमाना खोटा है बड़ा... पर हम अपने सिक्के को कितना तलाश लेते हैं... दूसरों की गलतियों को हम पल में भाप लेते हैं... अपने गिरेबान में झांका है कभी.. की हम क्यों अपनी गलतियों को माफ़ कर देते हैं... मिज़ाज अनोखा है थोड़ा हमारा... मान्यताओं से घिर बहुत जल्दी जाता है... थोड़ा भी टोड़ों उनको... तो खुद का विश्वास हिल जाता है... अन्यथा न ले कोई भी.. पर किसी से सीखना बहुत आवश्यक होता है... पर उस सीख से कितना खुद में ढालना है.. और कितना खुद से सीखना है... यही फैसला सरवोपरि होता है... ©Rashi Srivastava
Rashi Srivastava
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