ऐ ज़िन्दगी अब नहीं सहा जाता
मेरे सर पर ये तेरा ये का बोझ
अब मुझमें और हिम्मत नहीं
न ही और बोझ उठाने की वो ताक़त
थक गया हूं मैं इसे लादकर चलते हुए
सुकून चाहिए थोड़ी इस जिम्मेदारी से
इस झुठी रिश्तेदारी से, दुनियादारी से
अब और ये चलते रहना का ढोंग करना व्यर्थ है
कहीं पर ठहराव की तलाश में,
बस ज़िन्दा रहने की आस में,
ले चल कोई ऐसी जगह
जहां तेरे और मेरे सिवा कोई न हो
जहां से किसी को दिखाई न दे
कोई पुकारे तो सुनाई न दे
संसार के इस जाल से, बे सुरों के सुर ताल से
ले चल तू कहीं दूर..
©Nakib1996
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