अन्तःमन दर्शन
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जब भी सर उठा
बांहे फैला
आंखे बंद कर
नीले आसमां को
देखता हूँ,अंतर्मन से
दिख जाती है मुझे
कराहती कुछ सांसें,
भूख से बिलखते बच्चे
हड्डियों के ढांचे में
खेत मे हल चलाता
एक किसान
या फिर दिखने लगता है
एक बृद्ध जोड़ी
दरवाजे की ओर
आस भरी नजरों से देखते
शायद उसके जिगर का टुकड़ा
आएगा,हाल-चाल पूछने
दर्द उन सबका
जो बिना कारण
सताए जा रहे,
या इंसानियत की
हत्या करते
कुछ लोग
और अपनी छाती
ढंकती,एक युवती।
आगे और दिख जाता है
कामनाओं के दलदल में
बजबजाते लोग
जिन्हें परवाह नही
औरों की
परवाह नही
धरती की
परवाह नही
रिश्तों की,
आंखे भींच कसकर
बंद कर लेता हूँ
क्योंकि सब कहते है
ईश्वर आसमां में रहता है
और ये भेद मैं
खोलना नही चाहता
कि जो मुझे दिख रहा
वो तुम्हे क्यों नही दिख रहा?
दिलीप कुमार खाँ"अनपढ़"
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