निकल के रेत साहिल से, समंदर मे चली जाए।
जरूरी है नहीं फिर लौटकर, वापस वही आए।
मिसाले इक नहीं, सौ हैं! कहो कितनी कही जाए।
सुना होगा गुजरने वाले, गुजरे तो नहीं आए।
मुसाफिर राह भटके, और भटक के मुड़ अगर जाए।
मुनासिब है नहीं, की! "राहें मंजिल" उनको दिखलाए।
बिगड़ जाती है आदत जिनकी, उनके बचपने मे ही!
बदलते हैं नहीं वो आदत, कोई लाख समझाए।
तजुर्बा हैं मेरा! टूटे हुए रिश्तो को देखा है,
जो टूटे इक दफा धागे, कभी वापस ना जूड़ पाए।
सभी की चाह है उम्मीद है, कल हो खुशी वाला!
मगर मंजिल मिले कैसे उन्हें, जो आज सो जाए।
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