गया बचपन का वो दौर,
अब जवानी के नए पायदान पर,
अपना अगला कदम बढ़ाता हूं।
दर्दों को समेट अपने भीतर,
दिखावे के लिए मुस्कुराता हूं।
बस एक बार खुल कर रोना चाहता हूं,
पर कभी रो नहीं पता हूं।
रिश्तेदारी है, परिवार की जिम्मेदारी है,
और इन सब को चलाने के लिए,
नौकरी की मारा-मारी है।
क्या करूं..
घर का जवान लड़का हूं ना,
बचपन की तरह कभी चैन से सो नहीं पता हूं।
बस एक बार खुल कर रोना चाहता हूं,
पर कभी रो नहीं पाता हूं।।
🖋️गौरव झा नितिन
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©गौरव झा नितिन
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