मौन मेरी पहचान नहीं
कितना विवश,कितना विकल,कितनी व्याकुलता है उसमें,वो गुलाब जो स्वयं अपने ही काँटो से घिरा है।जिसे वेदना तो होती है पर उसे खिलना पड़ता है।उलझा उलझा सा स्वयं अपनी दुनिया मे पर विश्व की दृष्टि में सौंदर्य प्रतीक बनकर ही आता है वो गुलाब।कभी अपनी आह नही दिखाता।उफ्फ ये विवशता रूप के राजा की। ©प्रियदर्शिनी शाण्डिल्य
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