गंगा बोल रही है , आँखें खोल रही है
तटबंधों से बांध के तूने रोक दी अविरल धारा
मेरी सखियाँ यमुना ,कोसी, घाघरा से
हुआ दूर किनारा
गंगा बोल रही आँखे खोल रही है
ब्रह्म कमंडल में सिमटी मैं स्वर्ग को करती पावन
भागीरथ की तप-तपस्या लाई मुझे धरा पर
गंगा बोल रही है ...
मेरी आंचल में पलते थे भरतवंशी हलधारी
हिन्द देश की धरा पर गंगा बनी बड़ी उपकारी
गंगा बोल रही ...
अमृत बिराजे मेरी जल में कंचन करती जग सारा
मेरी पावन धारा में तूने घोल अपना विष सारा
गंगा बोल रही है .......
©Kumar Dhananjay Suman
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