ज़ब कभी तुम्हारे सामने
डरते हुए अपने लफ्ज खोले
कंपकपाते हुए होठों से
झुकी हुई निगाहों से
चिंताग्रस्त ललाट में
तुम्हें खोने का डर
उसके चेहरे पर साफ-साफ
दिख रहा था ....
तुम्हें अपने दिल का हाल
सुनाते हुए वह मन ही मन
तुम्हें जिंदगी भर के लिए
खो देने के डर से ससंकित था
आख़िर हुआ वही जिसका भय था
उसकी भावनाओं की कद्र न हुई
तुम कभी उसकी न हुई....
मुझे आगे बढ़ना है
बहुत कुछ पढ़ना है
समाज में कुछ करना है
वक़्त नहीं है,नहीं मैं..सोचती
तुम भी कुछ कर लो देखना
बहुत अच्छी लड़की मिलेगी....
आख़िर वह सच मान गया
तुम्हारी बातों को हज़ मान गया
क्या बीती होगी उसपर
ज़ब सारा सच जान गया
आख़िर सच तो कह देती
लायक नहीं था तेरे
मन से कह देती,देखो
झूठ नहीं सह पाया लड़का
जो सागर से लड़ जाता
हवाओं से टकराता था
देख तुझे वो ऐसे शर्माता था
जैसे पानी-पानी हो जाता था
ज़ब से उसकी बांहो में देखा है तुमको
वह लड़का झूठ नहीं सह पाया है
एक बार में लाखों गज़लें कहने वाला
आज एक लफ़्ज़ नहीं कह पाया है।
©शुभम द्विवेदी
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