मैंने रिश्तों के बाजार में अक्सर देखा है जो इंसान जितना ज्यादा रिश्तों को बचाने के लिए झुकता है वो इंसान लोगों की नजर में उतना ही बुरा होता है फिर रास्ते में उड़ने वाली धूल के समान व्यक्ति भी उस इंसान के जीवन में त्रिशूल की तरह चुभने लगता है और रिश्तों को लेकर चलने वाला व्यक्ति कहीं पतझड़ में झड़ने वाले पत्तों की तरह सूखकर या तो रिश्तों को बचाते बचाते कहीं पीछे छूट जाता है या कहीं जलकर राख हो जाता है, लेकिन रिश्तों के बाजार में जो इंसान चाटुकार, या उत्प्रेक्षा वाला होता है उसे तनिक भी ये भान नही
सफर ये मेरा मुझसे , मुझ तक है
इस सफर में, मैं हर रोज टूटता हूं
हर रोज़ खुद से ही मुकाबला करता हूं
हर रोज़ खुद से ही पीछे छूटता हूं
एक रोज़ से ही आगे निकलने की जिद होती है
एक रोज़ ख़ुद को ही पीछे छोड़ता हूं
एक रोज़ खुद को ही शाबाशी देता हूं
एक रोज़ खुद में ही टूटता हूं...
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