क्या मैं लिखूं खुद के बारे में... एक खुली किताब हुँ मैं, जो भी चाहे पढ़ ले मुझको, लहरों में चलता, गतिशील ब्रह्मांड हुँ मैं, वक़्त दरिया का वो किनारा हुँ मैं, दिल से दूसरों का सहारा हुँ मैं, सुबह की किरणों की तरह कोमल हुँ मैं, कितनों नें परखा मुझकों, मानक के तराजू पे तौला मुझको, रग-रग में सिर्फ वफ़ा ही मिली उनको, शक था मेरी खुद्दारी पे जिनको, ऊपर से कठोर, अंदर से मोम हुँ मैं, बेशुमार खुशियों का होड़ हुँ मैं , ग़मज़दा न होने दूँ औरों को, वो खुशियों का अंबार हुँ मैं, चाह कर भी रुक्सत न होने पाए, हर चाहनेंवालें का रकीब हुँ मैं, चंचलता की पराकाष्ठा हुँ मैं, ईमानदारी की पुजारी हुँ मैं, छल-कपट के सख्त खिलाफ़ हुँ मैं, प्रेम और निष्ठा के साथ हुँ मैं, असहाय के लिए मदद हुँ मैं, बुजुर्गों के लिए अदब हुँ मैं, पथिक को छाया हुँ मैं, छाया के लिए वो तरुवर हुँ मैं, जैसी जिसकी व्यवहार हो मुझसे, तैसा ही द्विगुणित बन जाऊं उससे, क्या मैं लिखूं खुद के बारे में, एक खुली किताब हुँ मैं, जो भी चाहे पढ़ ले मुझको...
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