द्वंद्व के मृदंग में - आंधियों के संग में ,
लड़खड़ता चल रहा मैं,
खुद को लपेट - होसलों की जंजीर में।।
कब तलक तपायेगी , अब तलक तड़पाएगी ।।
कागज नहीं कुंदन हूं मैं , तू कब तलक मुझे जालाऐगी ।।
मैं नहीं मुरझाऊंगा , मैं नहीं मिट पाऊंगा,
हो दम अगर तो जोर लगा , एक रोज नहीं हर रोज लगा ।
जान लें ऐ ज़िन्दगी ,
मैं वो बीज हूं जो मिट्टी में दब वट वृक्ष बन उग जाऊंगा ।
तूं घेर नहीं सकेंगी अंधेरे में अपने,
मैं सुरज बन यूं आसमान में उग जाऊंगा।।
तू लाख बन पत्थर -पहाड,
मैं नदी बन तुझे चीर कर समुद्र में मिल जाऊंगा ।।
मैं नहीं मुरझाऊंगा ,
तू लाख कर प्रपंच पर ,
मैं नहीं मिट पाऊंगा - मैं नहीं मुरझाऊंगा ।।
सुरज की कलम से।
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