जलाकर आग में खुद को बुझाना ही पड़ा होगा
मुसीबत में गले फिर से लगाना ही पड़ा होगा
मरासिम थे सभी से पर मगर मुझको बता दो ये
कभी हमराज़ दुश्मन को बनाना ही पड़ा होगा
शबे बीती बहाते अश्क़ पागल थे मुहब्बत में
तुम्हे महबूब को फिर से मनाना हीय पड़ा होगा
सुनी जब थी खबर तुमने मिलूंगा उस जहां तुमको
चुभा है आंख में तिनका बताना ही पड़ा होगा
भला रुकती कहां से ज़िन्दगी मेरे गुज़रने से
मुझे मालूम है तुमको चलाना ही पड़ा होगा
पता होता अगर मुझको कहां में फिर सफर करता
पढ़ाई जल्द पूरी कर ट्यूशन मुख्तसर करता
शहर छोडा गली छोडी वहाँ से था चला आया
नगर की रोनको से में भला कैसे गुज़र करता
जलाई जब कभी सिगरेट बना साया उसी का ही
उसी के नाम पे ही ज़िन्दगी पूरी ज़हर करता
ख़यालो ने डुबाया फिर कभी ना तैर पाया में
पलट आऊं बता कैसे समंदर को लहर करता
कभी भी बोलती जब वो नरम लहजा नही रखती
फ़क़त तेरे लिये में भी ज़ुबा अपनी शकर रखता
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