त्याग किया सीता बनकर तो मैला मुझको बतलाया ,
उस रावण का क्या पौरुष था जो धोखे से मुझको हर लाया ।
महलों से खुद को दूर रखा और कुटिया में सांसे भरती थी,
मेरे राम कभी तो आएंगे बस यही दुआ मैं करती थी !!
पुरषोत्तम की शंका बनकर जीना भी मुझको ना भाया,
अग्निकुंड में जा बैठी जब संकोच पुरुष का गहराया !!
उन लपटों से पौरुषता की दुविधा ना फिर भी जल पाई,
मैं रघुवंशी रघुवर से बिछड़ी और घोर गहन में चल आई !!!
अब पीड़ा और परित्याग के संग ही मुझे बसेरा लगता है,
कहीं छुपा इस भीड़भाड़ में जीवन मेरा लगता है !!
कवि निकेतन
पूरी कविता Youtube/kaviniketan पर !
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