रात एक औंधा कुआँ है काला सा
और मेड़ पर मैं बैठी हूँ सोई सी
मुठ्ठी भर ख्वाब समेटे पानी जैसे
ज्यों ज्यों बदलेगा करवट चाँद जम्हाई लेकर।हाथों से ये नीर सरीखे बह जायेंगे।
मैं बैठी हूँ ख्वाब को आँखों में भरकर।
इसमें बस मैं हूँ तुम हो और तुम्हारे हाथों में
गोटा टकीं लाल हरी एक चुनरी है।वहीं पास में एक गत्ते के डिब्बे में मीनेवाले काम की लाल चूड़ियाँ है।तुम मुझको और मैं तुमको बस ताक रहे है।
हाथ पकड़ कर तुमने डाली है,कच्ची चूड़ी मेरी
कोरी कलाई में और कहते हो "ज़रा सा और रूको तुम"।सूरज के आते ही निचोड़ के उसको
आज भोर ही माँग सिंदूरी करदोगे।
लेकिन तब तक छूट गये है नीर सरीखे (ख्वाब) मुठ्ठी से
चाँद बदलकर करवट निद्रा में लीन हुआ है
सूरज है पर जाने क्यों रंगविहीन हुआ है।
मैं बैठी हूँ ,ना चुनरी और ना चूड़ी है।
और ना तुम हो ,लेकिन..........
कोरी कलाई से एक टीस उठी है,लाल काँच धँसा हुआ है खाल के भीतर।
खून की धार वहीं से बह रही है.........#sakhi..
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