कहाँ ले जाऊँ दिल, दोनों जहाँ में इसकी मुश्क़िल है यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की महफ़िल है इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा, मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है, मेरा दिल है
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अब हलो हाय में ही बात हुआ करती है रास्ता चलते मुलाक़ात हुआ करती है दिन निकलता है तो चल पड़ता हूं सूरज की तरह थक के गिर पड़ता हूं जब रात हुआ करती है रोज़ इक ताज़ा ग़ज़ल कोई कहां तक लिक्खे रोज़ ही तुझमें नयी बात हुआ करती है
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