तुम समझते हो, वहां क्या है मेरा!
कैसे बताऊ, वहां बचपन है मेरा।
तुम सोचते हो वहां अब कौन है मेरा!
तुम्हें कैसे दिखाऊ, वहां "मैं"अभी भी है मेरा।
मुझे याद भी नहीं उस जगह कब आई थी,
लेकिन ये पता है वहां मुझे माँ लाई थी।
तुमसे ज्यादा और कौन समझता है,
जब माँ नहीं होती तो कैसा लगता है।
कितना अच्छा है न तुम्हारा, तुम वहां से गुज़र सकते हो जहाँ माँ बैठा करती थी,
वो घर भी कभी बगल से गुजरता है जहाँ वो तुम्हें पूछा करती थी।
मेरी माँ भी अब अपनी माँ के पास है,
तुम्हें कैसे समझाऊं😔
वहां अबभी उसका एहसास है।
जैसे जैसे बीमारी हर अंग को छिन्न कर रहा है.
कैसे कहूं मन हर किसीको विभिन्न कर रहा है।
बचपन से जवानी तक की रेखा वही तो खींची है,
सुनो,
चार दिन मे फिर से जी लूँगी जो वहाँ मुझपे बीती है।
जानते हो तुम, अपनी पे आउ तो मन की कर जाउंगी,
पर माँ के यहाँ तुम्हारे मन के साथ ही जाउंगी।
उम्र भर के लिए ये जिम्मेदारियां आई है,
अपनी माँ के घर मेरी सहेलियां भी आई है।
उनके जाने से पहले उनसे मिल आउंगी,
अब माँ घर मे नहीं रहती उसकी चौखट निहार आउंगी।
जाने दो, फिर लौट कर अपने घर ही तो आऊंगी...🙂
©Gayatri Singh
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