खौफ़ जकड़ के बैठा है मर्म की नर्सजल को
हर वक़्त फड़फड़ाती है जो खौफ़ की जकड़ से
मेहमान समझा था जिसे वो मालिक बन जाएगा
खौफ़ है, कि खौफ़ मेरे ज़ेहन से कब जाएगा
वक़्त अच्छा होगा, क्या फिर भी ये ठीक हो पाएगा
खौफ़ रूपी पंछी को पनाह दी थी हृदय रूपी वृक्ष पर
वृक्ष ने श्रांत मुसाफिर समझ पनाह दी थी
वृक्ष में ही रंध्र कर खौफ़ ये वृक्ष गिराएगा
खौफ़ है कि खौफ मेरे ज़ेहन से कब जाएगा
वक़्त अच्छा होगा, क्या फिर भी ये ठीक हो पाएगा
के बंद पुस्तकों के उपर धूल का पहरा आ गया था
पुस्तकों ने धूल को साझी समझा
न जानता था धूल से दीमको को निमंत्रण मिल जाएगा
खौफ़ है कि खौफ़ मेरे ज़ेहन से कब जाएगा
वक़्त अच्छा होगा, क्या फिर भी ये ठीक हो पाएगा
©akanksha Hatwal
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