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लेखिकी ही हमारे मन के विचारों को बाँटने का माध्यम है
ससुराल में ये बोलकर बहुओं को ताना मारने वाले लोग "कि हमारे घर में काम ही क्या है"वो ही लोग अगर बहू साल दो साल में कभी मायके चली गई और एक आद महीना रह गई तो बोलते है इतना रह गई अपनी मनमानी चलती है बस ©Lalita patni kothari
Lalita patni kothari
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ek rista esha bhi hota h jisse bahr niklne ka to bhut mn h pr kuch khun k riste bedi bnkar hame apne moh se bandh lete hai ©Lalita patni kothari
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वो कुछ कहना चाहती थी सहमी से लगती है वो सायद कुछ बताना चाहती थी वो किसी रिश्ते से उलझी सी है झुटी हंसी मुस्कुराना चाहती थी किसी की इज्जत तो किसी का भविस्य देखकर अपना दुख छिपाना चाहती थी वो कमजोर तो नहीं मगर फिर भी खामोश है वो ममता के पल्लू में दर्द दबाना चाहती थी ©Lalita patni kothari
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कुछ घरों में तो लोग इतने मतलबी होते हैं कि एक औरत को इज्जत देना तो नहीं जानते पर उसके बच्चो पर हक जताने पर माहिर होते है। जब उस औरत को इज्जत देने के काबिल नहीं समझा जाता तो उसके बच्चे कैसे अपने लगते हैं ? सायाद इस लिए क्योंकि वो बच्चे नौ महीने तक मां के खून के कतरे से बने है और ये लोग भी उस औरत के खून के ही प्यासे हैं। ©Lalita patni kothari
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ऐसे दौर से गुजर रहे हैं हम कि जिए या मरें किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। ©Lalita patni kothari
रोना भी छोड़ दिया मैने ये शोचकर कि कहीं मेरे आशुओं की कीमत खुदा तुमसे न लेले ©Lalita patni kothari
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