एक समय था जब हम बिना सोचे-समझे जितना मन,जहाॅ मन पेंसिल का भरपूर उपयोग किया करते थें,
सारें दाग तो बस् यू ही रबड् से मिटा करते थे !
आज तो इतना सोच-समझकर लिखना पडता है, कि पता नहीं ये स्याही के अधूरे निशान कहिं अपना न छोर दें !!
माना कि 'नफरत' भरे इस बाजार में तुम्हारे अपने कुछ ऊसूल भी होंगे,
पर हाॅ कभी ये सोचा है, तुम्हारे ये ऊसूल हमें खुद में कितने महंगे पडे होंगे !
चलो छोर दिया फिकर करनी तुम्हारी,बस् इतना बता दो, अब किसी और के लिए काटों के बबूल तो नहीं न बो रहे होगें !!
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