कोई बताओ ज़रा....
उन बुरी नज़रों से देखने वाली आँखों से
ख़ुद को कब तक बचाऊँगी ,
वो छु ना ले उन गन्दे हाथों से फिर ,
इस डर से कब तक ख़ुद को भगाऊँगी,
जब जब सुनती हूँ किस्से बलात्कार और
शोषण के ख़ुद को संभाल न पाती हूँ,
कैसे उन हैवानों की हवस से हरदम कुचली जाती हूँ,
उस दर्द और उत्पीड़न चित्कार भी किसी को सुना ना पाती हूँ,
कैसे उस दरिंदे ने जकड़ा था हाथों से यह सोच तो
भरे बाजारों में भी सहम जाती हूँ,
सोचती हूँ कभी क्या इस दरिंदगी के लिये उसकी रूह ना कांपी होगी,
उसने अपनी माँ, बहन, बहू, बेटी की इज्जत भी ऐसी हैवानियत से मापी होगी,
चलो माना ये शरीर के ज़ख़्म आज नहीं तो कल भर जायेंगे,
पर जो घाव लगे मन पर कैसे उनको भर पाऊँगी,
और जो दाग़ लगे चरित्र पर उनको कैसे मिटा पाऊँगी,
कभी बदचलन,बदसलुक,चरित्रहीन और रंगीन हो जाऊँगी,
जो किस्सा हो गया सरेआम तो निर्डर निर्भया भी कहलाऊँगी,
इस जमाने की बातें अब नहीं सुनी जाती इन कैंडल मार्च से
कब तक ख़ुद को बहलाउँगी,
दूसरों की खुशी के लिये मैं अपने आँसू कब तक छुपाऊँगी,
आज़ाद हो कैद से तुम अब इस बात के बोझ का जहर
कब तक पी पाऊँगी,
अब वक़्त है शेर बन दहाड़ने का,खड़ा हो
आवाज़ उठाने का, आख़िर अपना मुँह मैं, कब तक सी पाऊँगी,
क्या इतने सदमों के बाद भी मैं चुप रह पाऊँगी,
हर गली-नुक्कड़ और चौराहो पर ताकते उन जिस्म के
पुजारियों से अपनी आबरू मैं कब तक बचा पाऊँगी ।
©Paridhi Jain
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