अलख निरंजन
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न लख सका
मैं तुझको अलख
तू निर्लिप्त सा
आज तेरी लौं
हृदय में पा गया
हे निरंजन...!
हां स्वयं से ही
ठगा सा गया था मैं...!
मन में लख।
सुधा भारद्वाज"निराकृति"
विकासनगर उत्तराखंड
बचपन और बड़े भैया बचपन में हम रहते थे संग भैय्या के पीछे-पीछे।
एक भरोसा था उन पर चलते अखियां मीचे-मीचे।
पिता तुल्य थे भ्राता अपने करते हरदम आगाह।
छोड़ हाथ चले गये वो हम खड़े है मुट्ठीयां भींचे।
सुधा भारद्वाज"निराकृति"
ओ मन मेरे तनिक धीर धर।
न हो व्याकुल न तू हो बेसबर।
लक्ष्य पर ही दृष्टि ध्यान तू रख।
वहीं पर हो तेरी अगली सहर।
ओ मन .......
भले ही हो दुर्गम हो सूनी डगर।
ढूंढ़ लेगी मंजिल को तेरी नज़र।
न हार स्वयं से मत टेक घुटनें।
विपदा पर टूट तू बन के कहर।
ओ मन.......
सुधा भारद्वाज "निराकृति"
विकासनगर उत्तराखंड
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