" देवव्रत से भीष्म तक"
अदभुत माया, अदभुत उसकी मनमानी
निषाद पुत्री ने बात हृदय में ठानी,
व्याकुळ देख पिता को जो नित अश्रु बहाते
कैसा पुत्र मैं अभागा, मुझसे व्यथा भी न कह पाते।
निश्चय अपना बदलो
पितृ–हृदय को हरसाओ,
स्वीकार कर विवाह निवेदन
भरतवंश अंगना महकाओ।
बन भी जाऊँ रानी, रहेगी खाली ये झोली
बातें सुन देवव्रत की, सत्यवती तब यह बोली।
मेरे पुत्रों का क्या कभी यहां कुछ होगा
हे गंगा पुत्र तुम जो भी कर लो राज्य तुम्हारा ही होगा।
व्यथा के बाण लगे इतने, सुन के ये बातें सारी
बोल उठे देवी तुम्हारी चिंता को दूर करता देकर एक वचन भारी,
सूर्य चंद्रमा जब तक चमके, जैसे बहता यह पानी
सूर्य पश्चिम से उग सके पर अटल रहेगी यह वाणी।
काम पिता के जीवन आये यही हमारा कर्म हुआ
पुत्रधर्म से बड़ा जगत में कहा कोई कब धर्म हुआ,
साक्षी बनो हे गंगा माता और सुन लो जगत् के वासी
नही बधेंगे सात वचन में, जीयेंगे बन ब्रह्मचारी।
सुन शांतनु यह विकट प्रतिज्ञा, मन ही मन घबराये
बोले साथ हर्ष के क्यों दुःख के बादल लाये,
बहुत मनाया देवव्रत को पर छूटे न उससे उसका वचन
अब तो मुक्त तभी होंगे जब समाप्त होगा जीवन।
करुणा और गौरव से भर उठा शांतनु का हृदय
दूंगा ऐसा आशीर्वाद हुआ जो आज एक नया सूर्योदय,
हे पुत्र ! यह कठोर तपस्या, जग में तुमको देगा मान
जब तक तुम न चाहो मृत्यु न आये, देता हूँ मैं यह वरदान,
मृत्यु तुम्हे तभी स्पर्श कर पाएगी
जब चारो ओर से हस्तिनापुर सुरक्षित हो जाएगी,
प्रण एक ऐसा धारण कर, लंबी आयु तुम पाओगे
कभी हुआ न कभी होगा ऐसा, भीष्म तुम्हीं कहलाओगे॥
©Rahul Roy 'Dev'
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