मेरी मोहब्बत क्या इतनी खुदगर्ज़ थी
जो उसकी खामोशी न समझ पाई
बोलता रहा तंग हु ज़माने से
मैं मेरी खुशियाँ मांगती रही उससे
कितना बेबस हुआ होगा वो
जब मुझे भी खुद से झगड़ता देखा
ख्वाहिश रही होगी
उसे भी समझा जाए
जाने कितने ग़मो के बाद
वो आखिर मौन हुआ होगा
तरस आता है अपनी मोहब्बत पे
जो उसकी उदासी मैं भाप न पाई
क्या मेरी मोहब्बत इतनी खुदगर्ज थी
जो उसकी खामोशी मैं समझ न पाई???
आपका हमदर्द
©Kiran Pawara
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