आरज़ू थी एक दिन तुझसे मिलूं
मिल गया तो सोचता हूँ क्या कहूँ
घर में गहराती ख़ला है क्या कहूँ
हर तरफ़ दीवार-ओ-दर है क्या करूँ
जिस्म तू भी और मैं भी जिस्म हूँ
किस तरह फिर तेरा पैरहन बनूँ
रास्ता कोई कहीं मिलता नहीं
जिस्म में जन्मों से अपने क़ैद हूँ
थी घुटन पहले भी पर ऐसी न थी
जी में आता है कि खिड़की खोल दूँ
ख़ुदकुशी के सैकड़ों अंदाज़ हैं
आरज़ू का ही न दमन थाम लूँ
साअतें सनअतगरी करने लगीं
हर तरफ़ है याद का गहरा फ़ुसूँ
©Deepbodhi
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