आरज़ू थी एक दिन तुझसे मिलूं मिल गया तो सोचता हूँ | हिंदी Shayari

"आरज़ू थी एक दिन तुझसे मिलूं मिल गया तो सोचता हूँ क्या कहूँ घर में गहराती ख़ला है क्या कहूँ हर तरफ़ दीवार-ओ-दर है क्या करूँ जिस्म तू भी और मैं भी जिस्म हूँ किस तरह फिर तेरा पैरहन बनूँ रास्ता कोई कहीं मिलता नहीं जिस्म में जन्मों से अपने क़ैद हूँ थी घुटन पहले भी पर ऐसी न थी जी में आता है कि खिड़की खोल दूँ ख़ुदकुशी के सैकड़ों अंदाज़ हैं आरज़ू का ही न दमन थाम लूँ साअतें सनअतगरी करने लगीं हर तरफ़ है याद का गहरा फ़ुसूँ ©Deepbodhi"

 आरज़ू थी एक दिन तुझसे मिलूं
मिल गया तो सोचता हूँ क्या कहूँ

घर में गहराती ख़ला है क्या कहूँ
हर तरफ़ दीवार-ओ-दर है क्या करूँ

जिस्म तू भी और मैं भी जिस्म हूँ
किस तरह फिर तेरा पैरहन बनूँ

रास्ता कोई कहीं मिलता नहीं
जिस्म में जन्मों से अपने क़ैद हूँ

थी घुटन पहले भी पर ऐसी न थी
जी में आता है कि खिड़की खोल दूँ

ख़ुदकुशी के सैकड़ों अंदाज़ हैं
आरज़ू का ही न दमन थाम लूँ

साअतें सनअतगरी करने लगीं
हर तरफ़ है याद का गहरा फ़ुसूँ

©Deepbodhi

आरज़ू थी एक दिन तुझसे मिलूं मिल गया तो सोचता हूँ क्या कहूँ घर में गहराती ख़ला है क्या कहूँ हर तरफ़ दीवार-ओ-दर है क्या करूँ जिस्म तू भी और मैं भी जिस्म हूँ किस तरह फिर तेरा पैरहन बनूँ रास्ता कोई कहीं मिलता नहीं जिस्म में जन्मों से अपने क़ैद हूँ थी घुटन पहले भी पर ऐसी न थी जी में आता है कि खिड़की खोल दूँ ख़ुदकुशी के सैकड़ों अंदाज़ हैं आरज़ू का ही न दमन थाम लूँ साअतें सनअतगरी करने लगीं हर तरफ़ है याद का गहरा फ़ुसूँ ©Deepbodhi

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