White पहले की तरह अब नहीं रहा मेरा समाज। बदल | हिंदी कविता

"White पहले की तरह अब नहीं रहा मेरा समाज। बदला समय बदल गए सभी के अब मिज़ाज। मशगूल हो गए हैं अपने आप में सभी- करने लगे हैं बंद दिल के अपने सब दराज। सब बैठते थे साथ पहले दिन हो चाहे रात। सुख दुःख सुनाते करते थे आपस में मन की बात। लगता ही नहीं था अलग-अलग हैं हम सभी- परिवार थे हम देते थे एक-दूसरे का साथ। रौनक सी सजी रहती थी मोहल्ले में पहले। खिलती थी खुशी बच्चों के हर हल्ले में पहले। बचपन कहीं हैं खो गए किलकारियों वाले- सजते थे जो नगीने बन के छल्ले में पहले। अब तो उदासियों ने घर है अपना बनाया। वीरानियों का हर तरफ है बिछ गया साया। रहने लगे हैं लोग बंद अपने घरों में- जाने समय ने कैसा कालचक्र घुमाया। अब एक-दूसरे से लोग कटने लगे हैं। खुद में ही सभी आजकल सिमटने लगे हैं। होने लगे हैं दूर सभी ताल्लुकात से- आपस में मेल-जोल सबके घटने लगे हैं। रिपुदमन झा 'पिनाकी' धनबाद (झारखण्ड) स्वरचित एवं मौलिक ©रिपुदमन झा 'पिनाकी'"

 White पहले  की  तरह  अब  नहीं  रहा  मेरा समाज।
बदला समय बदल गए सभी के अब मिज़ाज।
मशगूल  हो  गए  हैं  अपने  आप  में  सभी-
करने  लगे  हैं बंद  दिल के अपने सब दराज।

सब  बैठते  थे  साथ  पहले  दिन  हो  चाहे  रात।
सुख दुःख सुनाते करते थे आपस में मन की बात।
लगता  ही  नहीं  था  अलग-अलग  हैं  हम  सभी-
परिवार  थे  हम  देते  थे  एक-दूसरे का साथ।

रौनक  सी  सजी  रहती  थी  मोहल्ले  में  पहले।
खिलती थी  खुशी  बच्चों  के हर  हल्ले में पहले।
बचपन  कहीं  हैं  खो  गए  किलकारियों  वाले-
सजते  थे  जो  नगीने  बन के  छल्ले  में  पहले।

अब तो उदासियों ने घर है अपना बनाया।
वीरानियों का हर तरफ है बिछ गया साया।
रहने  लगे  हैं  लोग  बंद  अपने  घरों  में-
जाने  समय  ने  कैसा  कालचक्र  घुमाया।

अब  एक-दूसरे  से  लोग  कटने  लगे  हैं।
खुद में ही सभी आजकल सिमटने लगे हैं।
होने  लगे  हैं  दूर  सभी  ताल्लुकात  से-
आपस में मेल-जोल सबके घटने लगे हैं।

रिपुदमन झा 'पिनाकी'
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित एवं मौलिक

©रिपुदमन झा 'पिनाकी'

White पहले की तरह अब नहीं रहा मेरा समाज। बदला समय बदल गए सभी के अब मिज़ाज। मशगूल हो गए हैं अपने आप में सभी- करने लगे हैं बंद दिल के अपने सब दराज। सब बैठते थे साथ पहले दिन हो चाहे रात। सुख दुःख सुनाते करते थे आपस में मन की बात। लगता ही नहीं था अलग-अलग हैं हम सभी- परिवार थे हम देते थे एक-दूसरे का साथ। रौनक सी सजी रहती थी मोहल्ले में पहले। खिलती थी खुशी बच्चों के हर हल्ले में पहले। बचपन कहीं हैं खो गए किलकारियों वाले- सजते थे जो नगीने बन के छल्ले में पहले। अब तो उदासियों ने घर है अपना बनाया। वीरानियों का हर तरफ है बिछ गया साया। रहने लगे हैं लोग बंद अपने घरों में- जाने समय ने कैसा कालचक्र घुमाया। अब एक-दूसरे से लोग कटने लगे हैं। खुद में ही सभी आजकल सिमटने लगे हैं। होने लगे हैं दूर सभी ताल्लुकात से- आपस में मेल-जोल सबके घटने लगे हैं। रिपुदमन झा 'पिनाकी' धनबाद (झारखण्ड) स्वरचित एवं मौलिक ©रिपुदमन झा 'पिनाकी'

#बदल_गया_समाज कविता

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