बँटवारा
जब संग रहकर रिश्तों की
थक जाती है धारा
कोई नहीं बचता है चारा
तब होता बँटवारा
धारा बँटकर कई दिशाओं में
जाकर खुश होती
लेकिन रिश्तें याद आयें जब
छुप छुप कर है रोती
उन्हें एक रहने में लगता
है खुद का नुकसान
चूल्हे जलते कई तो बँटकर
होता दुःखी मकान
जान रहे बँटवारे से कम
होगी अपनी ताकत
फिर भी खुशी खुशी देते हैं
बँटवारे को दावत
बँटवारा ना जाने कितने
खड़ी करे दीवारें
इक माता के दो पुत्रों में
खिंच जाती तलवारें
बेखुद वतन बँटा दे गया
सबको गहरे घाव
उसके काँटे चुभते रहते
ज़ख़्मी होते पाँव
स्वरचित
सुनील कुमार मौर्य बेखुद
गोरखपुर उत्तर प्रदेश
२४/०१/२०२५
©Sunil Kumar Maurya Bekhud
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