“ममता का दर्पण"
चार किताबें कम पढ़ी थीं माँ ने
मगर,खूब जानती थीं हुनर घर चलाने का ज़रा ज़रा में
माँ अपनी ही धरती पर आसमान बिछा कर चलती थीं
बाबूजी का स्वाभिमान मान बचाकर चलती थीं ।।
दिनकर के भी पहले उठकर
घर में भोर उड़हलती थीं
सारे जब सो जाते थे तारें
तब जाकर के ढलती थीं
हमारे उदास चेहरों से माँ
इतना ज़्यादा डरती थीं
व्रत,उपवास,नेम, धर्म
जाने क्या-क्या करती थीं ।।
सबकी सेवा करके सारे
तीर्थ घुमआया करती थीं
फ़िक्र इतनी थी की सारे चौखट
चुम आया करती थीं
सुबह-शाम की दीपक करती
रंगोली में रंग भरती थीं
ऐसा लगता था पूरे घर में
वही दिन, वही रात भी करती थीं।।
रिश्तों की जब खुल जाती थी सिलाई
क्या गज़ब तुरपाई करती थीं
हर रोज लड़ाई लड़ती थीं
सफेदी पर रंगीन कढ़ाई करती थीं
जौहरी की भाँती पत्थर में हीरा चमकाया करती थीं
एक धागें में माले सा परिवार सजाया करती थीं
जड़ सी थामकर पेड़-परिवार हरदम छाया करती थीं
खुद को हमसब पर माँ तुम कितना ज़ाया करती थीं।।
फिर भी ना कभी जताया करती थीं
ना कभी पराया करती थीं
जो जहां में कोई नहीं करता
माँ वो सब सारे करती थीं
माँ तुमको नमन
तन मन धन अर्पण
माँ जैसी तो माँ ही हैं
कहता हैं "ममता का दर्पण"।।
रजनी मूंधड़ा
©Rajani Mundhra
#mothers_day